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- Abhijit Iyer Mitra’s Column Which Are The Forces That Want To Interfere In Our Elections?
4 दिन पहले
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अभिजीत अय्यर मित्रा,सीनियर फेलो, आईपीसीएस
वे दिन गए, जब अमेरिका की चर्चित खुफिया एजेंसी सीआईए सीधे ही दूसरे देशों में हो रहे चुनावों में पैसा लगाती थी। वास्तव में छोटे देशों को छोड़कर ये तरीके बिल्कुल कारगर साबित नहीं हुए थे। भारत में तो यह कभी नहीं चलने वाला, चाहे कितने ही बेहतरीन प्रयास क्यों न किए जाएं। फिर भी इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे चुनावों में हस्तक्षेप करने की कोशिशें नहीं की जा रही हैं। सवाल है कि ये लोग कौन हैं और उनकी मंशा क्या है?
हमारे चुनावों में हस्तक्षेप करने वाले लोगों का पहला और सबसे शक्तिशाली समूह स्पेकुलेटिव-इंवेस्टर्स का है। इनमें जॉर्ज सोरोस जैसे हेज-फंड मैनेजर्स का नाम लिया जा सकता है। मानवाधिकारों और लोकतंत्र के प्रति अपने घोषित समर्थन के बावजूद उनकी प्राथमिकता अपने मुनाफों पर रहती है।
उनके लिए ‘मानवाधिकार’ शब्द देशों में अस्थिरता फैलाने का एक उपकरण है- क्योंकि जितना अधिक अस्थिर देश होगा, उसमें उतनी ही अधिक अराजकता, प्रणालीगत त्रुटियां, रिश्वतखोरी आदि होगी। उन्हें इकोनॉमी-क्रैश से मुनाफा होता है। भारत उन अर्थव्यवस्थाओं में से है, जिससे वे लाभ कमाना चाहते हैं, लेकिन ऐसा करने में अभी तक विफल रहे हैं।
यही कारण है कि सोरोस और पियरे ओमिडयार जैसे लोग नियमित रूप से अराजकतावादी न्यूज-आउटलेट और गैर सरकारी संगठनों में निवेश करते हैं- मुख्य रूप से ऐसे दीर्घकालिक नैरेटिव को बनाए रखने के लिए, जो स्थिरता कायम रखने में सक्षम किसी भी राजनेता या पार्टी की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचाते हों।
दूसरे तरह के लोग विदेशी उद्योगपति- विशेष रूप से बड़े तकनीकी प्लेयर्स हैं। उनकी प्रेरणाएं अपने एकाधिकार को कायम रखने की हैं। निश्चित रूप से अमेजन भारत में बहुत पैसा कमाता है। लेकिन मार्केट पर उसका एकाधिकार है, क्योंकि फ्लिपकार्ट इतना आगे नहीं बढ़ सका है और ईबे फैशन से बाहर है।
ऐसे में उसके मालिक जेफ बेजोस भारत पर निशाना साधने के लिए वॉशिंगटन पोस्ट का उपयोग क्यों करते हैं? मार्क जकरबर्ग का फेसबुक और इंस्टाग्राम सरकार-समर्थक सामग्री को क्यों सेंसर करता रहता है और अराजकतावादियों को क्यों बढ़ावा देता है? गूगल अपनी सर्च और अपने सहायक यूट्यूब पर एक जैसे कंटेंट को प्राथमिकता क्यों देता है?
इन सब सवालों का जवाब बहुत सरल है। अपने जीवनकाल में हमने तकनीक और सेवाओं दोनों को बढ़ते और अप्रचलित होते देखा है। जब हम बड़े हुए तो हमें मोबाइल फोन पेश किए गए और रातों-रात नोकिया और एरिक्सन घर-घर में पहचाने जाने वाले नाम बन गए। लेकिन हमने अपने जीवनकाल में ही इन कंपनियों को ध्वस्त होते भी देखा है।
इसी तरह हॉटमेल और याहू जैसी मेल सेवाएं, अल्टा विस्टा जैसे सर्च इंजन, ऑर्कुट और आईसीक्यू जैसे सोशल मीडिया भी गायब हो गए। क्यों? क्योंकि स्थिर और नियमित दुनिया में इनोवेशन की गति तेज और क्रूरतापूर्ण होती है। जबकि टेक-दिग्गज बेदखल होने से बचने के लिए अस्थिरता को बढ़ावा देते हैं और इनोवेशन की गति को धीमा करते हैं।
ट्विटर, फेसबुक, यूट्यूब, अमेजन (जो एडब्ल्यूएस के माध्यम से वेब-होस्टिंग को नियंत्रित करता है) और गूगल ने इसे अमेरिकी चुनावों में सफलतापूर्वक कर दिखाया था। लेकिन उन्हें भारत में अभी तक सफलता नहीं मिली है।
तीसरे समूह में पश्चिमी सरकारें हैं। हालांकि पश्चिम सामंतवादी युग में लौट रहा है, जहां राजा (सरकारों) की तुलना में बैरन और नोबल्स (कॉर्पोरेट्स) अधिक शक्तिशाली हो गए हैं। आज सोरोस, ओमिडयार, जकरबर्ग, बेजोस जो कर पा रहे हैं, उनकी तुलना में ये सरकारें अपने पूर्ववर्तियों के आसपास भी नहीं हैं।
बाडडन, रोनाल्ड रीगन की तुलना में और ऋषि सुनक, मार्गरेट थैचर की तुलना में शक्तिहीन हैं। नौकरशाही कॉर्पोरेट के वश में है। पर भारत में अस्थिरता चीन को मजबूत करेगी और पश्चिम यह भी नहीं चाहेगा।
एक स्थिरतापूर्ण और नियमित दुनिया में इनोवेशन की गति तेज और क्रूरतापूर्ण होती है। यही कारण है कि टेक-दिग्गज बाजार से बेदखल होने से बचने के लिए अस्थिरता को बढ़ावा देते हैं और इनोवेशन की गति को धीमा करते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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