Abhijit Iyer Mitra’s column – Lebanon is being crushed between Israel and Hezbollah | अभिजीत अय्यर मित्रा का कॉलम: इजराइल और हिजबुल्ला के बीच पिस रहा है लेबनान

Admin@KhabarAbhiTakLive
6 Min Read


  • Hindi News
  • Opinion
  • Abhijit Iyer Mitra’s Column Lebanon Is Being Crushed Between Israel And Hezbollah

3 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक
अभिजीत अय्यर मित्रा,सीनियर फेलो, आईपीसीएस​​​​​​​​​​​​​​ - Dainik Bhaskar

अभिजीत अय्यर मित्रा,सीनियर फेलो, आईपीसीएस​​​​​​​​​​​​​​

ऐसा लग रहा है कि लेबनान और इजराइल के बीच टकराव अब लगभग तय है। कई यूरोपीय देशों और अमेरिका ने अपने नागरिकों को लेबनान छोड़ने के लिए कहा है, जो एक बड़े इजराइली सैन्य अभियान का पूर्वाभास देता है। सवाल यह है कि हालात इस स्थिति तक क्यों पहुंचे और यहां से आगे क्या होगा। इसे समझने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा।

लेबनान को फ्रांस ने सीरिया से अलग करके एक ईसाई बहुसंख्यक देश के रूप में निर्मित किया था, ठीक उसी तरह जैसे पाकिस्तान को भारत से अलग करके मुस्लिम बहुसंख्यक देश बनाया गया था। यह 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत बाद किया गया था, जिसके बाद 1921 में वहां जनगणना की गई थी। जनगणना के बाद वहां पर ईसाई बहुसंख्यक घोषित किए गए, लेकिन यह लेबनान में हुई एकमात्र जनगणना थी।

वहां के तीन सबसे बड़े जनसंख्या-समूहों का प्रतिनिधित्व करने के लिए तीन भूमिकाएं परिभाषित की गईं। राजनीतिक शक्तियों के साथ कार्यकारी राष्ट्रपति पद ईसाइयों को दिया गया। कमजोर प्रधानमंत्री पद सुन्नियों को दिया गया, जो वहां का दूसरा सबसे बड़ा समूह था। संसद के अध्यक्ष का शक्तिहीन पद शियाओं को मिला।

तब से अब तक लेबनान में कई जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुए हैं। सबसे पहले तो 1948 में इजराइल के निर्माण के बाद वहां पर बड़े पैमाने पर फिलिस्तीनियों की आमद हुई, जिनमें से अधिकांश सुन्नी मुसलमान थे। इन फिलिस्तीनियों को यहूदी बस्तियों में रखा गया था, ताकि नाजुक साम्प्रदायिक शक्ति-संतुलन न बिगड़े।

हालांकि ऐसा हुआ नहीं और आखिरकार सुन्नी वहां पर बहुसंख्यक हो गए। सुन्नियों के पास राजनीतिक शक्ति की कमी थी, लेकिन उन्होंने दूसरे तरीके से इसकी भरपाई की। कई फिलिस्तीनी उग्रवादी समूह उभरे और शक्तिहीन लेबनानी सेना देखती रही।

सीरियाई लोग- एक विशाल सुन्नी बहुमत पर एक छोटे शिया-अलवी शासक-वर्ग के होने के कारण- सुन्नी राष्ट्रवाद को भड़काना नहीं चाहते थे, इसलिए फिलिस्तीनी उग्रवादी समूहों के माध्यम से सीरियाई सुन्नी भावनाओं को स्वर देने के लिए लेबनान को एक उपयोगी प्रॉक्सी पाया गया।

कुछ हद तक इन सुन्नी गुटों द्वारा लेबनानी सरकार की अवहेलना करने तथा इजराइल पर सीमा पार से आतंकी हमले करने की उनकी क्षमता के कारण 1975 में एक गृह युद्ध शुरू हुआ, जिसके कारण लेबनान की धनी ईसाई आबादी का एक बड़ा हिस्सा विदेश चला गया।

आज यह आलम है कि ब्राजील में लेबनान (40 लाख) की तुलना में कहीं अधिक लेबनानी आबादी (70 लाख) है। इसका नतीजा यह हुआ कि जब 1990 में गृह युद्ध समाप्त हुआ, तो यह लगभग निश्चित था कि लेबनान में सुन्नी बहुमत में हो गए थे। परिणामस्वरूप, गृह युद्ध को समाप्त करने वाले ताइफ समझौते ने ईसाई राष्ट्रपति की अधिकांश शक्तियां सुन्नी प्रधानमंत्री को हस्तांतरित कर दीं। लेकिन तब से सुन्नी आबादी भी वहां पर स्थिर हो गई है और अब हम निश्चित हैं कि लेबनान में शिया बहुसंख्यक हो चुके हैं।

इस दौरान हिजबुल्ला वहां पर शक्तिशाली बनता चला गया। 1990 के ताइफ शांति समझौते में सभी सैन्य-संगठनों को निरस्त्र करने का उल्लेख किया गया था। उसमें एक शर्त यह थी कि वे केवल तभी निरस्त्र होंगे, जब दक्षिणी लेबनान पर इजराइल का कब्जा हो जाएगा। जब 2000 में वह कब्जा समाप्त हो गया तो हिजबुल्ला को हथियारबंद रहने के लिए एक बहाने भर की जरूरत थी, जो उसने तुरंत ही खोज निकाला।

इससे बेरूत में सुन्नी सरकार को बहुत परेशानी हुई। जब रफीक हरीरी जैसे सुन्नी प्रधानमंत्री ने सीरिया के प्रभाव को कम करने की कोशिश की तो उन्हें बम विस्फोट में मार दिया गया, ताकि संदेश दिया जा सके कि सीरिया से मुक्त होने की कोशिश नहीं की जा सकती।

इस समय तक ईरान सीरिया और लेबनान दोनों का प्रमुख सहयोगी था, जो आवश्यकता पड़ने पर उन्हें हथियार और सेना की आपूर्ति करता था। सीरिया की ईरान पर निर्भरता के मद्देनजर लेबनान एक ईरानी-सीरियाई जागीरदार देश जैसा बन गया। सुन्नी सत्ता पर काबिज रहे, लेकिन हिजबुल्ला पर कोई बंदिशें नहीं लगाई गईं।

लेबनान के लिए यह कोई अच्छा सौदा नहीं रहा, क्योंकि इसका मतलब है कि हिजबुल्ला लेबनान नहीं, सीरिया और ईरान के हितों के लिए काम करता है। इसके अलावा, जब भी हिजबुल्ला इजराइल पर कोई बड़ा हमला करता है, तो लेबनान को कीमत चुकानी पड़ती है। 7 अक्टूबर 2023 से, हिजबुल्ला लगातार अपने हमलों को बढ़ा रहा है, लेकिन लेबनानी हित के लिए नहीं।

नेतन्याहू गाजा के बाद हिजबुल्ला से निपटना चाहते हैं। पिछले 9 महीनों में इजराइल पर जारी हिजबुल्ला के हमलों ने नेतन्याहू को वही दिया है, जो वे चाहते हैं। और इस बार फिर लेबनान के लोगों को इसका खामियाजा भुगतना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

खबरें और भी हैं…
Share This Article
Leave a comment